जन-जन के राम : Ram in every being

बरसों बाद अयोध्या में हलचल है। रामभक्तों की नजर सर्वोच्च न्यायालय और सरकार की ओर है। उन्हें उम्मीद है उनके आराध्य भगवान श्रीराम तंबू में अस्थायी मंदिर की बजाय जल्दी ही भव्य मंदिर में विराजेंगे। तथ्य स्पष्ट बता रहे हैं कि विवादित स्थल ही भगवान श्रीराम की जन्मभूमि है। जो लोग उन तथ्यों को नकारते हैं उनकी मंशा जगजाहिर  है। इस आलेख में भगवान श्रीराम की ऐतिहासिकता प्रस्तुत की गई है। विभिन्न संदर्भ ग्रंथों से श्रीराम के संबंध में अनेक तथ्य समाहित किए गए हैं

*

सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि के स्वामित्व संबंधी मामले की सुनवाई जनवरी, 2019 तक स्थगित कर दी है। लगता है विवादास्पद ढांचे के ढहने की वर्षगांठ किसी खास हलचल के बिना बीत जाएगी। ढांचा इसलिए कि इसका परिचय इतिहास के अधिकांश पन्नों में ‘मस्जिद’ नहीं, एक ढांचे के तौर पर दर्ज है। शीर्ष अदालत ने अनजाने में इस विवादास्पद मुद्दे को 2019 के आम चुनाव के और करीब लाकर खड़ा कर दिया, जिसने चार शताब्दी से हिंदुओं की कल्पना के एक कक्ष में आशा का दीप प्रज्ज्वलित कर रखा है। जहां राष्ट्र हिंदू सनातन परंपरा में भगवान राजा राम और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजनीय श्रीराम के प्रति आस्था के प्रतीक भव्य मंदिर के खिलाफ मद्धिम होते विरोध के पीछे काम कर रही भावना की विवेचना कर रहा है, वहीं अदालत में राम मंदिर के पक्ष में खड़े श्रद्धालुओं की ओर से प्रस्तुत साक्ष्यों की जांच हमारी जानकारी में वृद्धि कर सकती है, जिसके आधार पर सितंबर, 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय (लखनऊ पीठ) ने हमारे दिल को सुकून देने वाला फैसला सुनाया था। यह हिंदुओं के आत्मविश्वास और सशक्तिकरण की दिशा में एक बड़ा कदम था।

इसमें कोई संदेह नहीं कि न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल, डी.वी. शर्मा और एस. यू. खान के फैसले ने वामपंथी अकादमिकों, खासकर प्रोफेसर रोमिला थापर, डी.एन झा, शिरिन मूसवी, इरफान हबीब, डी. मंडल, सुप्रिया वर्मा, जया मेनन और सीताराम रॉय जैसे लोगों को हैरान कर दिया, जो ढांचे के पक्ष में पुरजोर दलील प्रस्तुत करते रहे थे। दरअसल, इतिहासकारों की मुखर आलोचना को नजरअंदाज करते हुए आम पाठकों के लिए यह देखना प्रासंगिक होगा कि वामपंथी शिक्षाविद् उच्च न्यायालय के सामने अपने दावों की पुष्टि करने में बुरी तरह विफल रहे। यदि सेकुलर मीडिया लखनऊ में सार्वजनिक सुनवाई की नियमित या निष्पक्ष रिपोर्टिंग करता तो फैसले को सुनकर किसी को हैरानी या आश्चर्य नहीं होता।

वामपंथियों ने 1989 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्वानों के नेतृत्व में राम जन्मभूमि के खिलाफ अभियान शुरू किया था। देखते ही देखते इसे देशभर में फैला दिया गया। इसका मुख्य कथानक ‘ऐतिहासिक साक्ष्य’ के नाम पर राम के अस्तित्व को नकारना था। वामपंथियों के अनुसार, ‘‘अयोध्या एक पौराणिक शहर था। वर्तमान समय की अयोध्या नगरी मूल रूप से साकेत नाम का नगर था, जो वास्तव में बौद्ध मतावलंबियों का गढ़ था। राम की पूजा 18वीं-19वीं शताब्दी की घटना, बाबरी ढांचा खाली भूमि पर बनाया गया था और अयोध्या में हिंदू-मुस्लिम के बीच विभाजन की लकीर को जन्म दिया था औपनिवेशिक काल के अंग्रेजों ने।’’

रामायण के विद्वानों का मानना है कि पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व से रामकथा जन-जन में प्राचीन आख्यानों के माध्यम से मौखिक रूप से बांची जाती रही है। हालांकि हरमन जैकोबी रामकथा के कालखंड को और पहले, करीब आठवीं या छठी शताब्दी ईसा पूर्व मानते हैं जब यह जनमानस के बीच प्रचलित थी। रामकथा के लिखित संस्करण शायद उसके एक या दो शताब्दी बाद अस्तित्व में आए जब महर्षि वाल्मीकि ने चौथी या तीसरी शताब्दी ई.पू. रामायण की रचना की। चौथी-पांचवीं शताब्दी तक राम की पूजा भारत के कोने-कोने में हो रही थी। इसके साहित्यिक, मूर्तिकला आधारित और पुरालेखीय प्रमाण मौजूद हैं।

चौथी-पांचवीं ई. में गुप्त साम्राज्य के दरबार के साहित्य शिरोमणि कालिदास (रामायण पर वाल्मीकि के बाद सबसे महान कवि) ने अपनी कृति ‘रघुवंशम्’ में राम का वर्णन ‘राम भी धनो हरि’ के रूप में किया है। चंद्रगुप्त द्वितीय की कन्या और वाकाटक की रानी प्रभावती रामभक्त थीं। चौथी शताब्दी के अंतिम दशकों में जारी दो शिलालेखों से पता चलता है कि रामगिरी पहाड़ी (आधुनिक रामटेक) के शीर्ष पर भगवान राम के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण हुआ, जिसमें उनके चरण-पद की स्थापना की गई थी। कालिदास ने गुप्त वंश के राजा के आदेश पर वाकाटक राज्य की यात्रा की थी और ‘मेघदूत’ में रामगिरी का उल्लेख किया था। माना जाता है कि प्रभावती के पुत्र प्रवरसेन द्वितीय ने ‘सेतुबंद’ लिखी जिसमें राम को विष्णु का अवतार ही नहीं, बल्कि उनके समान माना गया है। प्रवरसेन ने 431 और 439 ई. के दौरान अपनी नई राजधानी प्रवरपुरा (संभवत: आधुनिक पौनार, वर्धा) में बनाई और वहां राम के लिए एक मंदिर का निर्माण किया।

इस अवधि (पांचवीं शताब्दी का मध्यकाल) के आसपास पवनार में पाई गर्इं मूर्तियां राम का प्रतिरूप मानी जाती हैं और इन्हें राम संबंधी सबसे प्राचीन पुरातात्विक साक्ष्य माना गया है। झांसी के देवगढ़ के मंदिर में रामायण की झांकी बाद के कालखंड में गढ़ी गई होगी। ध्यानन देने वाली बात यह है कि एक तरफ जहां पत्थरों में रामगाथा उकेरी जा रही थी, वहीं समकालीन साहित्य भी रामकथा के रस में सराबोर हो रहा था।

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम संस्कृत और प्राकृत साहित्य का अमूल्य अंग बन चुके थे। राम को रामोपाख्यान (महाभारत में वर्णित रामकथा), विष्णु और ब्रह्म पुराण और भास के ‘प्रतिमा’ और ‘अभिषेक’ नाटकों में मुख्य चरित्र के तौर पर प्रस्तुत किया गया। राम केंद्रित प्राकृत पुस्तकों में संघदास की ‘वसुदेवहिष्टि’, जैन संत विमल सूरी की ‘पउम चरिउ’ (चौथी शताब्दी)  और भट्ट की ‘रावण वध’ (छठी शताब्दी) उल्लेखनीय हैं । ये सारे प्रमाण दर्शाते हैं कि श्रीराम ने पांचवीं शताब्दी तक विष्णु-अवतार के रूप में एक विशेष स्थान प्राप्त कर लिया था।

मुस्लिमों का आक्रमण शुरू होने तक रामायण जनमानस के ह्दय में बस चुकी थी। मुस्लिम आक्रमणकारियों से लोहा लेने वाले दो महत्वपूर्ण गुर्जर राजाओं को राम के अनुज लक्ष्मण का वंशज माना जाता है। मंडोर राजवंश की उत्पत्ति का वर्णन करने वाले जोधपुर बोका के शिलालेखों (837 सदी) के अनुसार राजवंश का नाम लक्ष्मण के नाम पर रखा गया था, जिन्होंने अपने बड़े भाई राम के प्रतिहार (द्वारपाल) के रूप में सेवा करते हुए किसी भी अनजान व्यक्ति को प्रवेश करने से रोकने का कर्तव्य निभाया था। ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेखों में भी गुर्जर प्रतिहार राजघराने को लक्ष्मण का वंशज बताया गया है, जिन्होंने राम के प्रतिहार के रूप में राम की ओर से दी गई प्रवेश निषेध की आज्ञा का पालन करने का कर्तव्य निभाया था।

राम पंथ विकास के अपने दूसरे चरण में तब पहुंचा जब राम को विष्णु के अवतार के रूप में चित्रित किया गया। इस दौर को दर्शाने वाली सबसे पुरानी मूर्तिकला खजुराहो (950-970 सदी) में पारस्वथ के जैन मंदिर में देखी जा सकती है, जिसकी बाहरी दीवारों पर राम की दो मूर्तियां स्थित हैं। पहली मूर्ति में राम ने तीर-धनुष धारण कर रखा है और दूसरी में उनके चार हाथ हैं जिनमें से ऊपरी दाएं और निचले बाएं हाथ में तीर है, उनका निचला दाहिना हाथ हनुमान को आशीर्वाद देने की मुद्रा में है और उसके ऊपर के बाएं हाथ से राम ने सीता को थाम रखा है।

जोधपुर (11वीं शताब्दी) के नजदीक ओसीन में अम्बा माता मंदिर की दीवार पर राम और सीता लक्ष्मी-नारायण के रूप में खड़े हैं। राम के हाथों में विष्णु के चार प्रतीक हैं। यह मूर्ति राम की है। इसका प्रमाण हनुमान की मूर्ति देती है जो उनकी दार्इं ओर खड़ी है। आठवीं शताब्दी तक दक्षिण के मंदिरों में मुख्य देवता के रूप में राम का प्रचलन शुरू होने लगा था। राम मंदिर का सबसे प्राचीन शिलालेख परातंक प्रथम (907-955) के शासनकाल के सातवें वर्ष का मिला है, जिसमें यह बात दर्ज है कि चेंगलपट जिले में स्थित कोडंदारामा मंदिर में विराजमान अयोध्या के भगवान को भूमि उपहार में दी गई थी।

उसके बाद देश के कई हिस्सों में राम मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ और इसी सिलसिले में नए मंत्र, स्तोत्र और ध्यान-प्रार्थना के लिए साहित्य की आवश्यकता महसूस होने लगी। 11वीं सदी से कई ग्रंथों की रचना होने लगी। तीन सबसे पुराने ग्रंथ  हैं- रामपर्व तापनीय उपनिषद, बुद्धकौशिक का रामरक्षास्तोत्र और 12वीं शताब्दी में लिखी गई अगस्त्य संहिता, जिसमें शिव रामभक्ति में डूबते हुए दिखाए गए हैं। यह मान्यता प्रचलित होने लगी कि राम सिर्फ विष्णु के अवतार नहीं, बल्कि सार्वभौम सत्य हैं। राम की लोकप्रियता मध्ययुगीन काल की राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान और बढ़ी। तेरहवीं शताब्दी में देवगिरी के यादव साम्राज्य के एक मंत्री हेमाद्री ने एक धर्म-निबंध (नियम संहिता) लिखा जिसमें राम को अवतार के रूप में पूजा करने की पूजन पद्धति बताई गई थी। उन्होंने राम के जन्म से जुड़े एक समारोह का वर्णन किया और अगस्त्य संहिता का एक भाग फिर से प्रस्तुत किया, जिसमें रामनवमी के महत्वपूर्ण त्योहार की  चर्चा की गई है। 12वीं और 15वीं सदी के दौरान रामकथा कन्नड़, तेलुगू, मलयालम, गुजराती, बंगाली, उड़िया और मराठी में दोबारा रची गई।

मुस्लिम आक्रमणकारियों के आगमन से तमिल क्षेत्र में ‘शक्तिपुंज पुरुषोत्तम : भगवान राम’ के नाम की जयकार शुरू हुई। जब बुद्धिजीवियों ने देखा कि आक्रमणकारी  देशवासियों और अपने आत्मीय संगियों की संस्कृति को रौंद रहे हैं, तो उन्होंने धनुषधारी राम के स्वरूप में कोडंद-राम की अवधारणा का आह्वान किया। आदित्य चोल ने कोडंद-रामेश्वरम को समर्पित पवित्र मंदिर बनाया था, जो संभवत: सशस्त्रधारी राम की छवि का सबसे पहला चित्रण है, साथ ही ‘रामायण को राजनीति की बिसात पर प्रस्तुत’ करने का शुरुआती संकेत भी।

वास्तव में मध्ययुगीन काल में मुस्लिम सेनाओं के रास्ते में पड़ने वाले हिंदू राज्यों के शासक यह मान रहे थे कि उनका जन्म राम की तरह बुरी ताकतों को पराजित करने के लिए हुआ है। चालुक्य / सोलंकी राजा, गुजरात के जयसिम्हा सिद्धराज को रामचंद्र के अवतार के रूप में माना गया। उसी तरह अजमेर के पृथ्वीराज तृतीय ‘रामावतारस्यैव पृथ्वीराज्यस्य’ माने गए, जिन्होंने राक्षसों ‘नरक्सासम’ म्लेच्छों का अंत करने की प्रतिज्ञा ली थी।

हिंदू शासकों ने मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा ढाए गए अत्याचार, विनाश और लूट-पाट से उत्तर भारत के पवित्र स्थानों को बचाने की प्रतिज्ञा ली। आज भी बड़ी संख्या में ऐसे स्थल मौजूद हैं, जिन्हें आक्रांताओं ने ध्वस्त कर दिया था, और हिंदू पवित्र अवसरों पर विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। बाबर के मरने के करीब 80 साल बाद 1608 और 1611 के बीच भारत का दौरा करने वाले अंग्रेज यात्री विलियम फिंच ने राम जन्मभूमि के प्रति गहरी हिंदू आस्था का उल्लेख किया है। उन्होंने रामकोट के भग्नावशेषों के बीच ब्राह्मणों को पूजा-अर्चना करते और सरयू में विधि-विधान से स्नान करने वाले अपने यजमानों के नामों को अपनी बहियों में दर्ज करते देखा था। औस्ट्रियन जेसुइट, जोसेफ टिफेंथलर ने 1766 और 1771 के बीच अवध का दौरा किया और रामनवमी के अवसर पर बड़ी संख्या में हिंदुओं को मंदिर के अंदर स्थित वेदी (पालना) जैसी धार्मिक संरचना की पूजा करते देखा था।

एक और दिलचस्पत तथ्य यह है कि 26 फरवरी, 1944 को उत्तर प्रदेश गजट में प्रकाशित नवाबी और ब्रिटिश काल के दस्तावेजों और वक्फ की संपत्तियों की सूची दर्शाती है कि बाबर ने बाबरी ढांचे के रखरखाव के लिए किसी वक्फ बोर्ड का गठन नहीं किया था। संभवत: वह उस क्षेत्र में ज्यादा दिन नहीं ठहरा था, लेकिन यही तथ्य शिया और सुन्नी के बीच ढांचे के स्वामित्व के विवाद को जन्म देने का कारण बना। इस्लाम में मस्जिद बनाने के लिए भूमि पर मालिकाना हक होना अनिवार्य है चाहे वह शिया हो, सुन्नी हो या अहमदी।

इसके अलावा, हिंदू कानून और पवित्र ग्रंथों में इस बात पर जोर दिया गया है कि मंदिर की संपत्ति किसी भी स्थिति में गायब नहीं हो सकती। कात्यायन का कहना है कि मंदिर की संपत्ति कोई गायब नहीं कर सकता, भले ही सैकड़ों साल से अनजान लोगों ने वहां पूजा-अर्चना की हो। इसी आधार पर 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश अदालतों ने भारत में हिंदू मूर्ति या देवता की मान्यता को विधिक स्वरूप माना था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस दलील को राम जानकी जी बनाम बिहार राज्य मामले में समर्थन देते हुए कहा था, ‘‘हिंदू कानून के तहत हिंदू देवता की मूर्ति को एक न्यायिक विषय के रूप में मान्यता देता है जिसे हिंदू शास्त्रों के अनुसार संपत्ति रखने का वैसा अधिकार दिया जाता है जैसा कि किसी सामान्य व्यक्ति को है। विधिक व्यक्ति के तौर पर किसी भी छवि को नहीं, बल्कि मन के विशिष्ट भाव से गढ़ी गई पवित्र मूरत को यह दर्जा दिया गया है…’’

इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुस्लिम पक्षकारों के वकील ने स्वीकार किया कि हिंदू मूर्ति एक न्यायिक व्यक्ति है, लेकिन उस न्यायिक व्यक्ति के स्थान की अवधारणा पर आपत्ति जताई। लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि स्थान की दिव्यता ने इसे स्वयंभू देवता बना दिया है, जो पूजनीय है। अगर एक स्थान को देवता के उपासकों द्वारा उस देवता को दिए गए नाम या धार्मिकता या अलौकिक घटनाओं से पहचाना जाता है तो उसे ‘देवता’ और ‘न्यायिक व्यक्ति’ के रूप में माना जा सकता है। हिंदू उस स्थान (श्रीराम जन्मभूमि,अयोध्या) को श्रीराम की जन्मस्थली के रूप में पूजा करते आए हैं।

श्रीराम जन्मभूमि के महंतों और बाबरी ढांचे के पक्षकारों के बीच 1858 से चल रहे मुकदमे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रस्तुत दस्तावेजों से पता चलता है कि वहां मुस्लिम उपस्थिति न के बराबर थी और 1934 के दंगों के बाद वहां कभी कोई नमाज नहीं अदा की गई। जाहिर है कि सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने इसलिए इस ढांचे पर कब्जे के लिए नहीं, बल्कि विवादित परिसर की स्थिति स्पष्ट करने की मांग की है। बोर्ड ढांचे के मुख्य गुंबद के अंदर मूर्तियों की स्थापना (23 दिसंबर, 1949) की 12वीं  सालगिरह से महज पांच दिन पहले 18 दिसंबर, 1961 को मुकदमे में शामिल हुआ था।

अधिकृत क्षेत्र में हिंदुओं को पूजा का अधिकार देने के बजाय उसे चुनौती देने के लिए बाद में उठाया गया कदम निश्चित रूप से एक राजनीतिक निर्णय होगा, हालांकि पृष्ठभूमि में सक्रिय किरदारों को हम नहीं जानते। सितंबर, 2010 से जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने दैनिक सुनवाई शुरू की तो बहुमत हिंदू समुदाय के पक्ष में बनने लगा। ऐसे में जन्मस्थान पर हिंदुओं के अधिकार को चुनौती देने वाले व्यक्तियों का हठी समूह स्पष्ट रूप से राजनीतिक और वैचारिक है। उनका क्रोध बढ़ने लगा है, क्योेंकि मुस्लिम समुदाय के अंदर भी मंदिर के पक्ष में आवाजें उठने लगी हैं। विरोध का झंडा लिए घूमते ऐसे लोगों के प्रति हमें सचेत रहना होगा, क्योंकि सत्ता के सभी केंद्रों में उनकी पहुंच है।

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं। यह आलेख मीनाक्षी जैन द्वारा लिखी पुस्तक ‘राम और अयोध्या’ (प्रकाशक: आर्यन बुक्स इंटरनेशनल, 2013) पर आधारित है)

Panchjanya, 2 December 2018

Bookmark the permalink.

Comments are closed.